नज़राना इश्क़ का (भाग : 36)
तकरीबन एक महीने बाद…!
अब निमय की हालत काफी बेहतर हो चुकी थी, फरी, विक्रम के घर के माहौल में पूरी तरह घुल मिल गयी थी। अब निमय भी कॉलेज जाने लगा था, चारों एक ही साथ कॉलेज जाते, इसका एक फायदा यह हुआ कि विक्रम टाइम से उठने लगा जिससे वैष्णव का काफी सारा टाइम बच जाता। अब तक वह भी फरी के साथ बहुत घुलमिल चुका था। जाह्नवी अब भी पहले की तरह निमय को तंग करने से न चूकती, पर ख्याल भी पहले से अधिक रखने लगी थी। अब तक चारों एकदम पक्के वाले दोस्त बन गए थे, पर फरी अब भी अपने बारे में किसी से कुछ न बताती। विक्रम काफी कुछ जानता था पर उसकी नजर में यह सब बताने का अब कोई मतलब नहीं था। निमय हर रोज उसके और करीब जाने की कोशिश करता पर कभी अपने मन की बात बोल न पाता, उन दोनो की ज्यादातर बातें अक्सर चैट्स और कॉल्स में ही होती थी। फरी और जाह्नवी दोनों को साथ देखकर कॉलेज के कई स्टूडेंट्स के अरमानों पर पानी फिर गया, वे सभी इन्हें उपेक्षा भरी दृष्टि से देखते मगर इन चारों को जैसे बाकियों से कोई मतलब ही नहीं था।
अप्रैल के महीना होने के कारण धूप काफी तेजी से पड़ने लगी थी, जिस दिन में कारण गर्मी काफी हद तक बढ़ जाती। मगर शाम का सुहावना मौसम मन को हरने वाला होता था, ठंडी शीतल बयारें दिल को बड़ा सुकून पहुचाती थी।
सूरज लगभग डूब चुका था, साँझ की लाली आसमान में चारों ओर फैली हुई थी, ठंडी ठंडी मन्द हवा के झोंके बह रहे थे। निमय छत पर बैठा अपने फोन के साथ कुछ खटपिट कर रहा था, उसकी आँखों में जैसे किसी के इंतज़ार सा था, वह जैसे किसी की आवाज सुनने को बेकरार हो रहा था। वह हर रोज हिम्मत करता कि आज कहेगा मगर ऐन वक्त पर बिचारे की हिम्मत जवान दे जाती, इसके लिए उसने खूब सारी किताबें भी पढ़ ली मगर जब वो सामने होती तो मुँह ऐसे बन्द जाता जैसे उसने डिब्बा भर फेविकोल गटक लिया हो। उसके होंठ तालू से चिपक जाते थे, वह सारी बातें कर लेता पर उसके प्रति अपनी फीलिंग्स जाहिर करते वक़्त वो एकदम चुप हो जाता, जैसे उसके पास से शब्द ही खत्म हो गए थे। लेकिन इसका एक फायदा उसे हुआ था, उसे एहसास हो चला था कि जिंदगी फिल्मी नहीं है, यहां प्यार होने और करने में बहुत अंतर है। फिल्मों में प्यार कराया जाता है, मगर उसे तो हो गया, वो भी उसे पता चले बिना, अचानक ही वो उसे अच्छी लगने लगी, और लगती चली गयी, इतनी अच्छी कि वह उसे अपनी जान मान बैठा, जाह्नवी और विक्रम ने भी अप्रत्यक्ष रूप से काफी कोशिशें की मगर सब नाकाम..! निमय आजकल काफी बदला सा लगने लगा था, वह अक्सर किताबों में उस प्रेम को ढूंढने की कोशिश में लगा रहता जो कि केवल पौराणिक कथाओं में ही मिलते हैं।
निमय अपने फ़ोन में भी ऐसा ही कुछ ढूंढने की कोशिश कर रहा था। मगर उसके चेहरे की झुंझलाहट से साफ पता चल रहा था कि उसने इंटरनेट पर ऐसा कुछ नहीं पाया जो उसके मन को शान्त कर सके।
तभी उसका फोन रिंग करने लगा, यह फरी का कॉल था, उसने तुरंत ही कॉल अटेंड किया। अचानक उसकी नजर अपने फ़ोन के वालपेपर पर गयी, जिसमें राधा-कृष्णा झूला झूल रहे थे। कृष्ण जी के सिर पर मोर मुकुट और होंठो पर मधुर मुस्कान के साथ बांसुरी, और राधा जी के चेहरे पर संसार को जीत लेने वाली अप्रितम मुस्कान.. अचानक ही उसके होंठो पर मुस्कान फैल गयी।
"हेलो..! हेलो निमय जी..! आप सुन रहे हैं ना?" उधर से फरी का चिंतित स्वर उभरा।
"ह..हाँ… क्या हुआ फरी जी?" निमय हड़बड़ाते हुए बोला।
"कुछ नहीं..!" फरी गहरी सांस लेकर बोली। "मैं दो मिनट से आपको हेलो हेलो कर रही आप सुन ही नहीं रहे..!" फरी ने अपनी चिंता का कारण बताया।
"ओह सॉरी! मेरा ध्यान भटक गया था शायद…!" निमय ने जब कॉल का रनिंग टाइम देखा तो उसे अपनी भूल का एहसास हुआ।
"कोई बात नहीं…!" फरी ने मुस्कुराते हुए कहा।
"जी कहिये.. इस नाचीज की कैसे याद आयी..!" निमय ने माहौल हल्का करने के लिए हंसते हुए कहा।
"कुछ नहीं, बस सौ साल पुराना रजिस्टर देख रही थी तो उसमें आपका नाम दिख गया, सोचा आपको भी याद कर ही लूं… क्योंकि आप तो करने वाले नहीं हो…!" फरी ने मुँह बिचकाया।
"ओ..! जाह्नवी का असर..! सब समझ आ रहा है मुझे..!" निमय खीखी करते हुए बोला।
"हाँ तो क्या! आपसे जब तक कोई सवाल न करो आप बोलते ही कहा हो…! अरे हाँ जाह्नवी जी ने बताया था आप कोई किताब पढ़ रहे हो! पढ़ लिया?" फरी ने यूं बोला जैसे उसे अचानक से याद आया हो।
"ज...जी कैसी किताब..!" हकलाता हुआ निमय उठकर कोने की ओर गया, उसे डर लगने लगा था कि जाह्नवी ने उसे पता न क्या बताया होगा।
"वही कोई प्रेम के ऊपर…!" फरी ने टपक से बोला।
"ह...न..हाँ!" निमय को जैसे जान में जान आयी।
"मेरे कुछ सवाल हैं, बता सकते हैं क्या आप?" फरी ने गंभीर स्वर में कहा।
"अब मुझे कालिदास बनना पड़ेगा क्या…!" निमय अपना सिर खुजाते हुए बोला, अब तक उसके सिर पर छोटे छोटे बाल उग आए थे।
"क्या..?" फरी ने हैरानी से पूछा।
"कुछ नहीं… पूछो आप..!" निमय बोला। "जब ओखल में सिर दे दिया है तो मूसल से डरना क्या, कम ऑन निमय! जल्दी से ज्ञानी निमय बन जा…!" निमय खुद से ही बुदबुदाया, फरी क्या सवाल पूछेगी इसके रोमांच से उसका रोम रोम सिहर उठा था।
"मेरे कुछ बेसिक से सवाल हैं, जो कि आजकल के लोगों नहीं समझ पाते, मैं एक छोटी सी डॉक्यूमेंट्री बनाना चाहती हूं, जिसके लिए आपसे बस कुछ प्रश्न पूछने हैं..!" फरी ने उसके मन में उभर रहे संशय भाव को भांपकर कहा।
"जी..!" निमय ने मन के भाव छिपाते हुए कहा। 'वैसे भी मैं कौन सा पुराने जमाने का हूँ यार..! पर जवाब तो देना ही पड़ेगा सोच निमय सोच…!" निमय मन ही मन बुदबुदाया, उसके सामने कान्हा और राधा जी की वही तस्वीर उभरी, 'हे कन्हैया! मदद करियो! प्रेम के तोसे ज्यादा कोही के समझ नाहीं!"
"प..प्रेम क्या है?" फरी ने अपना पहला प्रश्न पूछा।
"प..प्रेम कुछ भी नहीं है, असल में यह कोई प्रश्न ही नहीं है, प्रेम केवल उत्तर हो सकता है, प्रश्न कभी नहीं!" काफी सोचने समझने के बाद निमय ने धैर्य के साथ उत्तर दिया।
"पर फिर भी प्रेम कुछ तो होगा न, प्रेम का तात्पर्य?" फरी ने बड़े गंभीर भाव से दूसरा प्रश्न पूछा।
"अपने ईश्वर को पाने का मार्ग!" निमय ने काफी देर तक विचारने के बाद कहा, अब उसे प्रेम शब्द को लेने में अधिक उलझन नहीं हो रही थी।
"तो क्या जो ये मानव एक दूसरे के प्रति आकर्षण या चाहत का भाव रखते हैं क्या वह प्रेम नहीं है?" फरी ने बड़ी गंभीरता से लम्बी सांस भरते हुए पूछा।
"है, बिल्कुल है! परन्तु जिस व्यक्ति से आपको प्रेम होता है वह आपके लिए ईश्वरीय दर्जे को प्राप्त कर लेता है, फिर उसे पाने का मार्ग केवल प्रेम ही तो है!" निमय किसी तरह अपनी उलझन को समझाते हुए बोला, अब वह काफी सामान्य महसूस कर रहा था, उसे ऐसा लग रहा था जैसे प्रश्नों के उत्तर वो नहीं दे रहा बल्कि कोई और ही दे रहा था।
"फिर लोग बाह्य संसाधनों को देखकर प्रेम क्यों करते हैं? उनका प्रेम अधूरा क्यों रह जाता है?"
"जो प्रेम आत्मा से आत्मा तक का न हो वो प्रेम तो ही नही सकता, हाँ कुछ पाने की लालसा अवश्य ही कह सकते हैं, परन्तु यह लगाव तभी तक स्थिर रह पाता है जब तक सामने वाले का वह बाह्य संसाधन, रूप अथवा धन समाप्त नहीं हो जाता।"
"तो लोगों का प्रेम अधूरा क्यों रह जाता है?"
"भक्ति तो सभी लोग करते हैं ना फरी जी? सभी अपने सामर्थ्य अनुसार भक्ति करते हैं परंतु फिर भी भगवान को प्राप्त कर पाना इतना दुर्लभ क्यों है? कारण है समर्पण एवं विश्वास के भाव में निष्ठा की कमी, संदेह हमेशा ही रिश्तों को निगल जाता है, फिर वह प्रेम, प्रेम नहीं रह जाता, और जो प्रेम, प्रेम ही न हों, वह पूरा या अधूरा कैसे हो सकता है?"
"यानी कि आप ये मानते हैं कि भौतिकता से आकर्षण प्रेम नहीं हो सकता!"
"बिल्कुल..! हर भौतिक वस्तु एक न एक दिन स्वतः ही नष्ट हो जाती है, फिर उसकी चाहत रखना जो नश्वर हो प्रेम कैसे हो सकता है?"
"आप तो उल्टे सवाल पूछने लगे निमय जी! मैं बस ये जानना चाहती हूं कि क्या इस भौतिक आकर्षण के बीच घिरे संसार में सच्चा प्रेम भी हो सकता है?"
"प्रेम संसार के बंधन से परे है, जब प्रेम ईश्वरीय हो जाता है तो वह भक्ति के रूप में निष्पादित हो जाता है। यदि कोई भी दैहिक सुख को छोड़कर आत्मिक सुख को चाहता है, यदि किसी को किसी के चेहरे से नहीं उसकी मुस्कान से प्यार हो, वह उसकी आँखों में सुकून की तलाश करे तो बेशक वह सच्चा प्यार करता है।"
"और अगर कोई मुस्कुरा न सके तो?"
"इससे कोई फर्क नहीं पड़ता फरी जी! प्रेम केवल प्रेमी-प्रेमिका के नाम लिखी जागीर नहीं है, वह विस्तृत है! एक बाप जो अपने बच्चों के लिए दिन रात मेहनत करता है, मां जो सब दुःख सहकर भी उन्हें अपने आँचल के छांव में रखती है, बहन जो कितना भी लड़े फिक्र करती है, भाई जिनकी आपस में कभी नहीं बनती पर जब भी किसी पर कोई मुसीबत आये दूसरा तुरंत उसके साथ खड़ा हो जाता है, दोस्त जो निज स्वार्थ भूल सबकुछ अपने दोस्त पर कुर्बान कर देता है, ये सब भी तो प्रेम के ही रूप हैं! सच्चा प्यार वही है जो सभी नाश्वरिक विकृतियों को स्वीकारते हुए आत्मा से जुड़ा हुआ हो।"
"परंतु प्रेम भाव का सबसे अधिक प्रचलित रूप तो प्रेमी-प्रेमिका अथवा नायक नायिका के बीच ही दिखाया जाता है ना निमय जी? फिर इस संदर्भ में प्रेम क्या है?"
"कुछ भी हो फरी जी, प्रेम केवल वही है जो राधा ने कृष्ण से किया, जो राम ने सिया से किया...! प्रेम जब अपने प्रेमी को ईश्वर के रूप में प्रतिष्ठित करता है तो वही प्रेम भक्ति बन जाती है, फिर कोई मीरा प्रेम में मतवाली होकर सड़को पर झूमने लगती है। अगर इस के अतिरिक्त अगर कहीं प्रेम है तो वह मीरा का ही प्रेम है जिसने विष के प्याले को भी झूमकर पी लिया। अब के गिरगिट जैसे रंग बदलते प्रेमी खुद को राधा कृष्ण क्यों कहने लगते हैं? उन्हें तो ये खुद पता नहीं होता कि उनकी मोहब्बत आज ये है तो कल कौन होगी! जिस्म के नुमाइश की चाहत प्रेम तो नहीं हो सकता न फरी जी! यह धरती कई महापुरुषों और महावीरों की रही हैं, यहां कई महान प्रेमियों ने जन्म लिया परन्तु सीता-राम और राधा-कृष्ण जैसा प्रेम अद्वितीय है। प्रेम, पाने या खोने से बहुत आगे का शब्द है, प्रेम को शब्दों से बांधा नहीं जा सकता, हम धन्य हैं जो इस धरती पर ऐसे महान प्रेमियों ने जन्म लिया।"
"आपका मतलब शारीरिक आकर्षण प्रेम नहीं हो सकता?"
"जी फरी जी! कब से यही तो कह रहा...!"
"इसका मतलब अगर मुझे कुछ हो जाये तो भी आप मुझसे.....!" फरी जल्दी जल्दी में पता न क्या बोल गयी और जब उसे इसका एहसास तो वह बिल्कुल खामोश हो गयी। "सॉरी ... सॉरी..!" फरी ने लंबी लंबी सांसे छोड़ते हुए कहा, ऐसा लग रहा मानों उसकी धड़कन कई गुनी तेज हो गयी हो।
"क्या..!" निमय बुरी तरह से चौंका, उसे कुछ भी समझ न आया। "क्या हुआ फरी जी? आप ठीक तो है ना?" निमय को उसकी चिंता सताने लगी।
"जी मैं आपसे बाद में बात करती हूँ! भाई आ रहे हैं, कॉल रखती हूं।" कहते हुए फरी ने कॉल कट कर दिया।
"अरे पर वो भी तो दोस्त है न मेरा...! हेलो हेलो... धत्त यार कॉल काट दी, इतना शुद्ध हिंदी तो मैंने कभी बोला ही नहीं..! धत्त निमय, तेरा कुछ नहीं हो सकता।" बुरी तरह चिल्लाता हुआ निमय अपने फोन की स्क्रीन देख गंदी सी शक्ल बनाया। 'आपका बहुत धन्यवाद कान्हा जी, प्लीज मेरी फरु का ख्याल रखना।' मन ही मन वह प्रार्थना करते हुए अपने पीछे की ओर घुमा। अपने सामने जाह्नवी को खड़ा देखकर वह बुरी तरह चौका, उसकी चीख निकल गयी, फोन गिरते गिरते बचा।
"त...तू यहां क्या कर रही है?" निमय बुरी तरह हकलाते हुए पूछा।
"जस्ट अभी आयी हूँ!" जाह्नवी ने मुँह बनाया। "और तू मुझे देखकर ऐसे क्यों रियेक्ट कर रहा जैसे कोई चुड़ैल देख ली हो?"
"चुड़ैल देख लेता तब तो कोई दिक्कत ही नहीं थी!" निमय ने भी मुँह बनाया।
"हुंह…! चल नीचे मम्मी बुला रही है।" जाह्नवी ने मुँह बनाया और उसका हाथ पकड़कर खींचने लगी।
"ठीक है तू चल न..! आता हूँ मैं!" निमय ने हाथ छुड़ाते हुए कहा, जाह्नवी पैर पटकते हुए नीचे चली गयी, निमय थोड़ी देर तक बहुत कुछ सोचता रहा फिर वह भी नीचे चला गया।
क्रमशः….!
Pamela
15-Feb-2022 01:29 PM
Nicely written
Reply
मनोज कुमार "MJ"
20-Feb-2022 02:14 PM
Thank you so much ❤️
Reply
विजयकांत वर्मा
12-Feb-2022 04:17 PM
बेहतरीन अंक
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मनोज कुमार "MJ"
20-Feb-2022 02:14 PM
Bahut bahut dhanyawad sir 🙏
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